कलिकाल में भक्ति के बिना निष्कलंक रहना मुश्किलः-दिव्य मोरारी बापू

धर्म

देवली:-(बृजेश भारद्वाज)। श्रीभक्तमाल कथा के 17 वें दिवस पर कथावाचक श्रीश्री 1008 महामण्डलेश्वर दिव्य मोरारी बापू ने बताया कि कलिकाल में भक्ति के बिना निष्कलंक रहना बहुत मुश्किल है।

करमेती बाई का खंडेला के शेखावत राजा के परशुराम नामक पुरोहित के यहां पुत्री के रुप में जन्म हुआ। पिताजी को भगवत भक्ति करते देखकर इनके मन में भी भगवान के प्रति अटूट प्रेम का रंग चढ गया।श्री करमैती जी का जीवन इस घोर कलिकाल में उत्पन्न होकर भी सर्वथा निष्कलंक रहा। इन्होंने अपने शरीर के पति के प्रति नश्वर प्रेम को छोड़कर, आत्मा के पति भगवान श्रीकृष्ण के चरणों में सच्चा प्रेम किया।

शादी के बाद जब ससुराल वाले लेने आये तो रात भर सोई नहीं। भगवान से प्रार्थना करने लगी कि मुझे सांसारिक मोह माया की बजाय आपके चरणों की सेवा देना। अपने तर्कों के द्वारा सोच-विचारकर संसार के सभी सम्बन्धों को तोड़ डाला।श्री नाभागोस्वामी कहते हैं कि ससुराल जाने के लिए सजी धजी करमेती बाई रात को ही घर से वृंदावन के लिए निकल गई। सारा जीवन वृंदावन में ही रहकर भगवान की भक्ति में व्यतीत किया।

करमेती बाई को राजा की फौज ढूंढने पहुंची तो रास्ते में करमेती बाई तीन दिन तक मरे हुए ऊंट के चमडे में छुप गई। इतनी बदबू के बावजूद करमेती बाई को बदबू नहीं आई। करमेती बाई के पिताजी लेने जब वृंदावन गये तो करमेती ने ठाकुरजी देकर वापस भेज दिया। आज भी खंडेला में करमेती बाई के ठाकुरजी विराजमान हैं। बापू ने बताया कि बलराम जी ही नित्यानंद के रुप में तथा कृष्ण भगवान ने ही गोपियों के प्रेम की अनुभूति के लिए चैतन्य प्रभु के रुप में जन्म लिया।

हरीदास जी प्रतिदिन दो लाख भगवान के नाम का जप करते थे। लोगों द्वारा शिकायत करने पर हरीदास जी अपनी जीभ को रस्सी से खींच कर बांधने लगे, जिसके बाद गुरूजी ने कह दिया कि आप तो कभी भी भजन करो। भक्त कुंदन दासजी जतीपुरा में रहकर भक्ति करते थे।

भरतपुर का राजा स्वप्न की प्रेरणा से कुछ देने पहुंचे, लेकिन इन्होंने मना कर दिया। श्रीकृष्ण ने कई बार इनको दर्शन दिया। गरीबी के चलते पत्नी को कहते कि चूल्हे पर पानी चढा दो, बच्चे इंतजार करते करते सो जायेंगे, तब भगवान को स्वयं आकर खिचडी का सामान पानी में डालना पडता था। बापू ने सुदामा चरित्र सुनाते हुए कहा कि सुदामा पोरबंदर में रहते थे, श्रीकृष्ण द्वारका में रहते थे। सुदामा आर्थिक रुप से गरीब थे, लेकिन आध्यात्मिक रूप से सुदृढ थे।

सुदामा ने श्रापित चने भगवान के प्रेम के चलते खा लिए कि कहीं कृष्ण गरीब नहीं हो जायें। सुशीला के अनुनय विनय के बाद सुदामा थोडे से चावल लेकर श्रीकृष्ण से मिलने द्वारका गये, वहां पर भगवान ने सुदामा का बहुत आदर सत्कार किया, राज सिंहासन पर बैठाकर चरण पखारे तथा भाभी सुशीला द्वारा भेजे गये चावल खाने लगे, दो मुठ्ठी चावल के बदले में दो लोक दे दिये, तीसरी मुठ्ठी चावल खाने लगे तो रूक्मणी ने रोक लिया।

भगवान ने सुदामा को लोगों के समक्ष कुछ नहीं दिया, क्योंकि लोग कहते कि ब्राह्मण आया जब दीन हीन था, आज हमारे कृष्ण ने कितना दे दिया कि सुदामा की काया कल्प हो गया। इसलिए सुदामा को गरीबी हालत में ही विदा किया, लेकिन गांव व घर पर अन्न धन का भण्डार भर दिया। इस दौरान रामलाल सेन ने सुदामा चरित्र की जीवंत रूप में प्रस्तुति को देखकर लोगों ने दांतों तले अंगुली दबा ली। भक्तों व श्रद्धालुओं ने कृष्ण सुदामा चरित्र के मार्मिक मिलन को देखकर आंसू बहाये, वहीं महिलाओं ने भगवान के जयकारों से पाण्डाल को गुंजायमान बना दिया।

इसी के साथ 17 दिवसीय कथा का समापन हुआ। रविवार सुबह श्री दिव्य मोरारी बापू व श्री घनश्यामदास जी महाराज मय संगीतकारों के धौलपुर जिले के सरमथुरा में होने वाली कथा के लिए रवाना हो गये।

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